Monday 5 November 2012

Article-series on Irom: यह चुप्पी इरोम की नहीं, लोकतंत्र की हार है!


As a recent move of Save Sharmila Solidarity Campaign (SSSC), a nationwide protest against the neglect and suppression of Irom Sharmila, is observing 12 Article series to reflect 12 years of suppression of Irom Sharmila's fast.

In this series one article per day will be published on its website and will be dedicated to one year fast of Irom.

This will conclude on 5th November, the day when Irom Sharmila will be unfortunately completing her 12 years of stuggle. 

Here's an article in Hindi: 



यह चुप्पी इरोम की नहीं, लोकतंत्र की हार है!


- अशोक कुमार पाण्डेय



मणिपुर में सरकारी अस्पताल में जबरन नलियों के सहारे दिए जा रहे भोजन के भरोसे चलती साँसों, क्षीण काया और अपनी अदम्य जीजिविषा की प्रतीक मुस्कराहट ओढ़े इरोम शर्मिला की तस्वीर भारत के महान लोकतंत्र और जगमगाती अर्थव्यवस्था के चहरे पर एक गहरे प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह दिखाई देती है| बारह वर्षों से अपनी ज़िद और सिक्किम की जनता के प्रति अपने अगाध स्नेह तथा भारतीय सेना के सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून (AFSPA)  के तहत ज़ारी अमानवीय दमन के खिलाफ़ वह अनशन पर हैं| लेकिन दिल्ली के रामलीला मैदानों पर ज़ारी अनशनों से पिघल जाने वाली सरकारें हों या उबल जाने वाली मीडिया या फिर मचल जाने वाला हमारा ‘ग्रेट इन्डियन मिडल क्लास’, इस एक दशक के व्रत के दौरान उसने अक्सर चुप रहकर नज़रअंदाज करने का विकल्प ही चुना है| उत्तरपूर्व हो की कश्मीर या अन्य उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ, भारतीय मुख्यधारा की रूचि बस ‘अविभाज्य अंग’ होने तक ही सीमित है और सारी सक्रियता इस अविभाज्यता को एन-केन प्रकारेण बचाए रखने तक| उन अभिशप्त हिस्सों के नागरिकों के दुःख-दर्द, उनकी मानवीय इच्छायें तथा लोकतांत्रिक आकांक्षायें और उनकी आवाज़ भारतीय शासक वर्ग की चिंताओं का हिस्सा कभी नहीं बन पाते|

डेढ़ सौ सालों के लम्बे औपनिवेशिक शासन में अंग्रेजी हुकूमत से इस महाद्वीप की उत्पीड़ित जनता के हर हिस्से ने तीखी लड़ाई लड़ी थी| सूदूर उत्तर-पूर्व में भी अंग्रेजी शासन के खिलाफ़ लंबा और फैसलाकुन संघर्ष चला था| अंग्रेजी शासन के पहले स्वतंत्र रहे इन राज्यों ने आज़ादी के बाद एक लोकतांत्रिक, शांतिपूर्ण, सेकुलर और समतामूलक समाज के निर्माण के स्वप्न के साथ भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा बनना स्वीकार किया था| आज़ादी उनके लिए उन स्वप्नों को साकार होता देख पाने के अवसर के रूप में आई थी| कश्मीर में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाले नेशनल कांफ्रेंस ने कश्मीर के तात्कालिक डोगरा शासक हरि सिंह के स्वतंत्र राज्य बनाये रखने के और मीर वायज के बरक्स एक लोकतांत्रिक और सेकुलर स्टेट बनाने के पक्ष में आन्दोलन चलाया और इसी आकांक्षा के साथ भारतीय राज्य को पाकिस्तान के सामंती राज्य की जगह चुना| यहाँ यह बता देना उचित ही होगा की ठीक इसी समय मुस्लिम और हिन्दू कट्टरपंथी राजा के साथ सहयोग कर रहे थे| यह किस्सा कई अलग-अलग पूर्व रियासतों में दुहराया गया, लेकिन जनता की ताकतों ने अपना पक्ष बेहतरी के लिए चुना और उसके लिए बलिदान भी दिए|

खैर, बात मणिपुर की हो रही थी और मणिपुर का कई दूसरे उत्तर-पूर्वी राज्यों की ही तरह थोड़ा अलग किस्सा है| मणिपुर अपने इतिहास में कभी भी भारतीय केन्द्रीय शासन व्यवस्था का हिस्सा नहीं रहा| चाहे वह मुगलों का राज्य हो, या उसके पहले सम्राट अशोक या चन्द्रगुप्त का समय, यह क्षेत्र हमेशा एक स्वतन्त्र राज्य रहा| 1891 में अंग्रजी प्रभुत्व में आने के बाद यह औपनिवेशिक भारत का हिस्सा बना| १९४२ में द्वितीय विश्वयुद्ध में यहाँ के तत्कालीन राजा बोधचंद्र ने युद्ध में अंग्रेजों का साथ देने का आह्वान किया और फरवरी १९४२ में नेताजी सुभास चन्द्र बोस की आजाद हिंद फ़ौज ने इम्फाल पर भयावह बमबारी के बाद कब्जा कर लिया| इस बमबारी में राज्य के लगभग सभी प्रमुख प्रशासक तथा व्यापारी मारे गए और पूरा इम्फाल वीरान हो गया| भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में पहली बार जनरल मलिक ने यहाँ आज़ाद हिंद फ़ौज का झंडा फहराया| युद्ध के बाद राजा और दूसरे लोग लौटे तो लेकिन यहाँ लोकतंत्र की मांग शुरू हो चुकी थी| राजा ने नया संविधान बनवाया और अपने एक भाई को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया| भारत की आजादी के बाद उन्होंने यहाँ चुनाव की घोषणा की और उस चुनाव में अन्य पार्टियों के अलावा कांग्रेस पार्टी ने भी हिस्सा लिया| प्रजा शान्ति और कृषक सभा की सरकार चुनी गयी तथा राजा के भाई का मुख्यमंत्री बनना तय हुआ| लेकिन इसी बीच राजा को शिलांग बुलाया गया और अगर उनकी माने तो बन्दूक की नोंक पर उनसे भारतीय राज्य में विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करा लिए गए| एक साल के भीतर ही जब इस नयी सरकार को सत्ता सौंपने की तैयारी चल रही थी तो इसे भंग कर दिया गया और रावल अमर सिंह मणिपुर के पहले भारतीय चीफ कमिश्नर बनाए गए| १९५६ में इसे एक केंद्र शासित प्रदेश का दर्ज़ा दिया गया और बाद में १९७२ में पूर्ण राज्य का| मणिपुर में अलगाववादी आन्दोलनों का इतिहास भारतीय राज्य में उसके विलय जितना ही पुराना है|

इस अलगाववादी आन्दोलन के बावजूद १९७८ तक इसका राज्य में कोई बड़ा आधार नहीं था| लेकिन भारतीय राज्य में विलय के साथ ही १९५८ में बने ‘सशस्त्र सेना विशेषाधिकार नियम’ के तहत मणिपुर में सेना की तैनाती और राज्य की आकांक्षाओं के अनुरूप विकास कार्यों को संपन्न करा सकने की अक्षमता ने इस राज्य में अलगाववादी आन्दोलन के लिए खाद-पानी का काम किया| भारतीय राज्य में जबरन विलय को लेकर जो असंतोष था वह अकूत अधिकार प्राप्त सेना के दमन के चलते और तेज़ी से फैला तथा स्वतन्त्र मणिपुर राज्य की मांग को लेकर अलग-अलग तरह के तमाम आन्दोलन मणिपुर में फ़ैल गए| चार मार्च, २०१२ में ज़ारी अपनी एक रिपोर्ट में ह्यूमन राईट वाच संस्था का स्पष्ट मानना है की मणिपुर में फैले आतंकवाद के पीछे सेना का दमन है| जैसे-जैसे अलगाववादी आन्दोलन जड़ पकड़ते गए यह दमन बढ़ता ही गया और बच्चे, बूढ़े, औरतें सब इसकी जद में आते चले गए|

ऐसी ही एक घटना में बस स्टाप पर प्रतीक्षा कर रहे दस लोगों की ह्त्या के विरोध में उस वक़्त एक मानवाधिकार समूह ‘ह्यूमन राइट्स एलर्ट’ में काम कर रही तथा कवियत्री इरोम ने अपना अनशन शुरू किया था| उस घटना के बाद एक कागज़ पर उन्होंने लिखा – शांति का स्रोत क्या है और इसका अंत क्या है? अगले दिन अपनी माँ के हाथों पकाया भोजन खाने के बाद वह अनशन पर बैठ गयीं| यह इस दमन के प्रतिरोध का गांधीवादी तरीका था| उनकी मांग स्पष्ट थी – सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून को वापस लिया जाय| ज़िद ऐसी की उन्होंने दांत साफ़ करने के लिए भी रूई का सहारा लिया ताकि पानी की एक बूँद भी शरीर में न जाए| लेकिन उसकी इस ज़िद का सम्मान करने तथा उनसे बात करने की जगह  अनशन शुरू करने के अगले ही दिन, तीन नवम्बर २००० को मणिपुर पुलिस ने उन्हें आत्महत्या के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और तब से अब तक इसी क़ानून के तहत बिना किसी पेशी या मुक़दमे के उन्हें गिरफ्तारी में रखा गया है| ज्ञातव्य है की इस आरोप में किसी को भी एक साल से अधिक गिरफ्तार नहीं रखा जा सकता|

आज उनके अनशन के बारह साल पूरा हो जाने पर भी कहीं कोई हलचल दिखाई नहीं देती| इसे क्या कहा जाय? सरकार की बेरुखी या गांधीवादी तरीके की असफलता? सबसे ज़्यादा खलने वाली बात है मीडिया और बौद्धिक वर्ग की चुप्पी| यह चुप्पी इरोम की नहीं, दरअसल हमारे लोकतंत्र की हार है|    

This is an article written by Ashok Kumar Pandey, a social activist and poet from Gwalior. He is also a part of Save Sharmila Solidarity Campaign.  


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